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Kanch Ke Ghar (HB) (Hindi) By Hansa Deep (9789355181831)

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Description

‘‘काँच के घर में रहने वाले दूसरों के घरों पर पत्थर नहीं मारते। लेकिन अब ये काँच के घर नहीं रहे जिनमें झाँक कर देख सकते हैं कि अन्दर क्या हो रहा है। काँच की परिभाषा बदल गयी थी। बहुत कुछ बदला था। सब अपनी सुविधाओं के अनुसार चीज़ें बदल रहे थे। लोग सिर्फ़ समूहों में ही नहीं बँटे थे, उनके दिल भी बँट गये थे। किसी बँटी विरासत की तरह, जो थी तो सही पर बँटते-बँटते नाम भर की रह गयी थी। एक एक करके अनेक हो सकते थे पर एक अकेले का सुख उन सबके लिये बहुत था।’’

‘‘देखा जाये तो यह एक सभ्य जंगल था। जंगल के जानवरों की अलग-अलग प्रजातियाँ सभ्य समाज में भी थीं, वैसी की वैसी सारे दोमुँहे जानवर थे। अन्दर से अलग, बाहर से अलग, अन्दर से जानवर बाहर से सुसभ्य इन्सान। समूहों में भीड़ चिल्लाती, गली में कुत्ते भौंकते। घरों के अन्दर आदमी थे, बाहर तरह-तरह के जानवर। जानवर लाठी से डरकर भाग जाते हैं पर सभ्य जानवर लाठी का इंतज़ार करते हैं ताकि लाठी खाकर, सिर फुटव्वल की नौबत लाकर सबको जेल भेज सकें। लाठी का घाव आज नहीं तो कल भर जायेगा पर मारने वाले की कपटी साँसें जीते जी जेल की चहारदीवारी में बंद हो जाएँगी।’’

‘‘धाँधली शब्द ने कई लोगों के कानों में जैसे सीसा उड़ेल दिया और कई चेहरों पर सवाल खड़े कर दिए। आँखें, भौंहें, होंठ और नाक ने प्रश्नवाचक चिह्न के सारे घुमाव अपने ऊपर ले लिए। इस शब्द को खोज इसकी तह तक पहुँचने के लिए सारे आतुर हो चले। एक गया, दूसरा गया फिर बैक स्टेज लाइन लगने लगी। जो भी स्टेज के सामने बैठे थे उनका धैर्य जवाब दे गया। उन्हें लगा कि बैक स्टेज से अलग से सम्मान दिये जा रहे हैं। पीछे के दरवाजे से मिलने वाले लाभों से कहीं वे वंचित न रह जाये इस आशंका से वे सब उठ-उठकर जाने लगे।’’

—इसी उपन्यास से



Author: Hansa Deep
Publisher: Vani Prakashan
ISBN-13: 9789355181831
Language: Hindi
Binding: Hardbound
No. Of Pages: 127
Country of Origin: India
International Shipping: No

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Weight 0.380 kg

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