Description
हिन्दी कविता की युवतम पीढ़ी में पार्वती तिर्की का स्वर एकदम अलग है। झारखंड के कुड़ुख समुदाय से आनेवाली पार्वती आदिवासी जीवन-बोध के आधारभूत तत्त्वों से अपनी कविता की काया रचती हैं जिसमें प्रकृति की बड़ी और निर्णायक भूमिका रहती है। धरती, चाँद-तारे, पेड़-पौधे, जीव-जन्तु—ये सब जैसे आदिवासी जीवन में अभिन्न हैं, उसी तरह पार्वती की इन कविताओं में भी उनकी मौजूदगी दिखाई देती है।
अभिव्यक्ति की सरल भंगिमाओं में उनकी कविताएँ अनायास ही प्रकृति और मनुष्य के आपसी सम्बन्धों को देखने की हमारी दृष्टि को बदल देती हैं। ये कविताएँ बताती हैं कि सृष्टि के प्राकृतिक अनुशासन के भीतर ही मनुष्य की तमाम चेष्टाएँ अपना स्थान ग्रहण करती हैं, और उसी के अनुकूलन में मनुष्य अपना स्वाभाविक विकास कर पाता है।
पार्वती की कविताओं की एक अन्य उल्लेखनीय विशेषता यह है कि वे बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के प्रकृति के सान्निध्य में बनते-बढ़ते जीवन की सहज छवियों, बिम्बों, लोक के विश्वासों और मान्यताओं को कविता का हिस्सा बना देती हैं।
आदिवासी बोध के बाहर पनप रही सभ्यता के आक्रामक प्रभावों और ख़तरों को रेखांकित करना भी पार्वती नहीं भूलतीं। इस संग्रह की कई कविताएँ प्रकृति के साहचर्य और उसके बरक्स खड़े शहरी दबावों के तनाव को सफलतापूर्वक अंकित करती हैं।
‘फिर उगना’ के पन्नों से गुज़रना कविता-सुधी पाठकों के लिए निश्चय ही एक नए इलाक़े से वाक़िफ़ होने जैसा होगा।
Author: Parwati Tirkey
Publisher: Radhakrishna Prakashan Pvt. Ltd.
ISBN-13: 9788195948468
Language: Hindi
Binding: Hardbound
No. Of Pages: 127
Country of Origin: India
International Shipping: No
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